लोकतंत्र के दरवाजे पर खड़ा बौद्ध






१९९० में मध्यप्रदेश के बस्तर संभाग में जब नक्सलवाद धीरे धीरे अपने पांव पसारते हुए पूरे छत्तीसगढ़ आंचल में छाने की मुहिम चला रहा था। ऐसे में हरियाणा का एक नौजवान यहां भानुप्रतापपुर एसडीओपी के रुप में पदस्थ हुआ। सीधे साधे भोले भाले अधनंगे आदिवासियों के बीच उसने एक अजीब सी शांति पाई। उसे लगा शांति का मसीहा बौद्ध इन्हीं के बीच मौजूद रहता है। ऐसे में माओ का हिंसक आंदोलन इनके बीच ज्यादा समय सांस नहीं ले पाएगा। भटके हुए लोग बहुत जल्द इस शांत समाज में लौट आएगें। कुछ समय बाद उन्हें परिवारिक कारणवश यहां से लौटना पड़ा। बस्तर की शांति और बौद्ध उन्हें याद आता रहा। १९९४ में ग्वालियर में कमांडेट रहते हुए उन्होंने अपनी पहली पदस्थापना को याद करते हुए गौतम बौद्ध की पेंटिग बनाई। छह साल बाद छत्तीसगढ़ राज्य के अस्तिव में आते ही बटवारे मे यहां चले आए उनके साथ बौद्ध की पेंटिग भी साथ आ गई। लेकिन शांत माने जाने वाला छत्तीसगढ़ इन दस सालो में काफी बदल चुका था। शायद शांति के पुजारी बौद्ध को पूजने वाले अब यहां नहीं थे और बौद्ध के चहेरे से भी मुस्काराहट गायब थी। नक्सलवाद ने यहां की धरती पर नरसंहार कर लाल ङांडा लहराने में तो कामयाबी हासिल नहीं की बल्कि धरती को निर्दोष ग्रामीण और उनकी सुरक्षा में लगे पुलिस जवानो के खून से लाल जरुर कर दिया था। पुलिस मुख्यालय में डीआईजी से आईजी के रुप में पदोन्नत होते ही राजेन्द्र विज की पोस्टिंग बस्तर रेंज में हुई। प्राकृतिक प्रेम ने उन्हें एक बार फिर बस्तर की वादियों में बुला लिया था। लेकिन बस्तर इस बार बदला हुआ था। पिछले पन्द्रह वर्षो में बस्तर अपनी शांति लूटा चुका था। नक्सलियों के बारुदी विस्फोट की दुर्गंध बस्तर की हरियाली में चारो ओर फैली हुई थी। ऐसे में गौतम बौद्ध और महात्मा गांधी के आदर्श पर चलने वाला व्यक्ति क्या कर सकता है। क्या एक गाल पर थप्पड़ मारने पर दूसरा गाल सामने कर देगा। श्री विज ने कहा कि ऐसा भी संभव था जब वह व्यक्ति समाज में जीता हो लोकतंत्र पर विश्वास रखता हो। उसे बेशक समाज में लौटने के लिए आग्रह किया जा सकता है। लेकिन यहां लोकतंत्र की हत्या हो चुकी थी। गांधीगिरी सिर्फ उस व्यक्ति के साथ किया जाना चाहिए जो समाज में जीता है। भटक गया हो इस समाज में वापस लौटना चाहता हो। लेकिन जिसे इस अहिसंक समाज में जीना ही नहीं है। बंदूक के दम पर खूनबहाकर भय और दहशत का सम्राज्य स्थापित करना है। उससे गांधीगिरी नहीं की जा सकती है। अब भी समय है कांलिग युद्ध का नरसंहार,बस्तर के नरसंहार के सामने कमजोर हो चुका है। समाज में लौटा जा सकता है। लोकतंत्र के तरीके अपनाए जा सकते है। अन्याय के विरोध में महात्मा गांधी द्वारा बनाए गए व्यवस्था के तहत आंदोलन छेड़े जा सकते है। किसी ने नहीं रोका है उन भटके हुए लोगो को बौद्ध अब भी लोकतंत्र के दरवाजे में खड़ा पट खोलकर उनका इंतजार कर रहा है। बस्तर से लौटने के बाद एक बार फिर १४ साल बाद अपै्रल २००९ को सलवा जुड़ूम पर लिखते हुए आईजी विज ने अपने विचार कैनवास पर उतारे हैं। उनकी उंगलिया आड़ी तिरक्षी लकीरो पर फिर खेलने लगी और बापू का एक हंसता मुस्कारता चहेरा कुछ घंटो बाद सामने था। उन्होंने मुस्काराते हुए बड़ी गंभीरता से कहा कि यह उनकी पेंटिग नहीं विचार है। प्रदेश और देश को ही नहीं पूरे विश्व को एक बार फिर बौद्ध और बापू का इंतजार है।

Comments

ajay saxena said…
बहुत खूब योगी जी ... मुझे आप पर नाज है भाई

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