छत्तीसगढ़ में बाबूलाल जैसे अफसर रहेगे तो नक्सलवाद तो पैदा होते रहेगा

छात्र राजनीति में पत्रकारिता में और कड़वा बोलने वाले रिश्ते से मेरे बड़े भाई लगने वाले अनिल पुसदकर की प्रेरणा से पहली बार अपने विचार ब्लाग में लिख रहा हूं ऐसे पिछले एक साल से में सिर्फ मै नक्सलवाद के खिलाफ समाचार ही लिख रहा हुं। पिछले दिनो अनिल भैय्या ने ब्लाग लिखने वालो से अपील की थी कि वह अपने विचार के साथ साथ अपने आसपास की घटनाओ का समाचार भी लिखे लेकिन यह मेरे ऊपर लागू नहीं होता था क्योकी मै तो पहले से ही समाचार लिखता था। लेकिन अब भैय्या के कहने को उल्टा करते हुए विचार लिख देता हूं
मेरा विचार व्यक्तिगत भी नहीं है। आईएएस अफसर बाबूलाल अग्रवाल के परिवार में पड़े आयकर के छापे के बाद यह पूरी तरह स्पष्ट हो चुका है कि अमीर धरती गरीब लोग यह सिर्फ शीर्षक ही नहीं वास्तव में यह छत्तीसगढ़ का चेहेरा है। आयकर विभाग ने भले ही रातो रात यह स्पष्ट कर दिया है कि छापा किसी अफसर के बंगले में नहीं बल्कि अफसर के परिवार के व्यापरिक प्रतिष्ठानो में हो रहे आयकर की चोरी के कारण पड़ा है। लेकिन छापा गरीब धरती के उन अमीरो के यहां पड़ा है। जिनके परिवार का एक सदस्य छत्तीसगढ़ के प्रशासनिक अमले में एक महत्वपूर्ण पद पर काबिज है। पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने पिछले महीने विधानसभा में कहा था कि छत्तीसगढ़ से नक्सलवाद खत्म तो हो जाएगा लेकिन अगर समस्याओ की जड़ में नहीं पहुंचा गया तो कोई और वाद पैदा हो जाएगा। यह सही बात है कि आज भी छत्तीसगढ़िया दो वक्त के रोटी के लिए खून पसीना एक करने के बाद भी पूरे परिवार के लिए रोटी कपड़ा मकान की व्यवस्था नहीं कर पा रहा है। जानवर से भी बदतर जीवन जीने वालो के हक को मारकर अपनी तिजोरी भरने वाले अफसर और व्यापारी यहां के भोले भाले और शांति से जीने वाले लोगो को सशस्त्र क्रांति के लिए मजबूर कर रहे है। भगवान किष्ण ने गीता में कहा है कि चोरी तब होती है जब एक आदमी के पास जरुरत से कम हो और एक आदमी के पास जरुरत से ज्यादा हो और शायद इस बैलेंस को बरकार नहीं रखा गया तो नक्सलवाद और न जाने कौन कौन से वाद पैदा होने लगगे। हालांकि आईएएस अफसर ने भी प्रदेश के नंबर वन अखबारो में अपना पक्ष रखते हुए आयकर छापे को अपने खिलाफ षडयंत्र करार दिया है। बहारहाल परिवार तो उनका ही है। और यह बात कौन पचाया गया। स्वास्थ्य, शिक्षा, कृषि जैसे विभाग के महत्वपूर्ण पदो में रहने वाले अफसर से क्या उम्मीद की जाए।

Comments

अच्छी पोस्ट वर्तमान नक्सल समस्या को ईंगित करती हुयी-आभार

कृपया वर्ड वेरीफ़िकेशन हटा लें।
सही कहना है भारत भाई।

ये आपने सही किया कि अपने विचार ब्लॉग पर लिखे।
यदि सिर्फ अपनी लिखी हुई खबर को ब्लॉग में डालेंगे तो अखबार और ब्लॉग में क्या अंतर रह जाएगा।
खबर और उस पर अपना विचार्……

या फिर सिर्फ अपना विचार… यही तो ब्लॉग है न।
लिखते रहें।
कृपया वर्ड वेरीफ़िकेशन हटा लें
शुभकामनाएं
Unknown said…
भारत भाई, बाबूलाल जैसे हजारों अफ़सर पूरे देश में फ़ैले हुए हैं… मध्यप्रदेश में भी कल ही छापे पड़े और बिस्तरों में छिपाये गये नोटों को गिनने के लिये मशीनें लगाना पड़ीं…। अक्सर लोग कहते हैं कि फ़र्जी मुठभेड़ नहीं होना चाहिये, लेकिन ऐसे 10-20 अफ़सरों को ही सबसे पहले फ़र्जी मुठभेड़ में उड़ा देना चाहिये…। कुछ अफ़सर साले तो ऐसे हैं जिनकी एक भी औलाद नहीं है, पता नहीं इतने रुपयों को कहाँ भरेंगे…
ब्यूरोक्रेट में अधिकांश लोग बाबूलाल हैं । इन बाबूओं से मुक्ति भी नहीं मिलनी है जब तक हमी उन्हें रिश्वत देना बंद नहीं करेंगे । हम जनता की हैसियत वाले हैं । हम और कुछ न कर सकें किन्तु ऐसे लोगों का सामाजिक वहिष्कार तो कर ही सकते हैं । और हममें से कई लोग ऐसे हैं जो छापा पड़ने से पहले भी ऐसे भ्रष्ट्र अफ़सरों के बारे में जानते हैं, और उनका चक्कर भी लगाते हैं । क्या हम यह पहले से ही बंद नहीं कर सकते ताकि कुछ तो उन्हें पहले भी शर्म आये कि भले ही वे धन कमा लिये हैं किन्तु समाज के अच्छे लोग उन्हें पंसद करते नहीं....
दोष मौजूदा व्यवस्था में है। मुझे एक चिकित्सक ने बरसों पहले कहा था कि फंगस वाला दाद किसी खास स्थान पर ही क्यों नहीं होता? इस लिए कि उस स्थान की चमड़ी में कमी है। वहाँ उसे फलने फूलने को अवसर मिलता है। आम लोग यदि इस व्यवस्था में सामान्य जीवन जीने की राह बना लें तो हिंसक प्रतिरोध देखने को नहीं मिलेगा।
वस्तुतः इस दोषी व्यवस्था को बदलने की आवश्यकता है।
Unknown said…
भारत भाई, जब भी ऐसे मामले पकड़ में आते हैं… अधिकतर बुद्धिजीवी यह कहते हैं कि "हमें रिश्वत नहीं देना चाहिये…", या "इस व्यवस्था को बदलना होगा…", लेकिन यह कैसे किया जाये यह कोई नहीं बताता…। न्यायपालिका के प्रति घोर आशावादी व्यक्ति भी दावे से नहीं कह सकता कि इन IAS पिस्सुओं को सजा मिलेगी, और इन लोगों ने यह तन्त्र इतना मजबूत बना लिया है कि आम आदमी के बस में नहीं है कि वह बिना रिश्वत दिये अपना काम करवा सके… फ़िर इलाज क्या है?
अब दिक्कत ये है कि मैं बुद्धिजीवी नहीं हूं… इसलिये मुझे तो फ़िल्म "हिन्दुस्तानी" (कमल हासन) वाला तरीका ही समझ में आता है… काश कोई तो संगठन बने या पनपे जो ऐसे अधिकारियो, ठेकेदारों, उद्योगपतियों और नेताओं को एक-एक करके ठिकाने लगाये और वह भी पूरे प्रचार के साथ… ताकि बुरी तरह पिस रही जनता को मानसिक राहत ही मिल जाये…। रही बात जनता को शिक्षित करने, रिश्वतखोरी के खिलाफ़ अभियान चलाने, सूचना अधिकार मजबूत करने आदि उपायों की तो यह सारे उपाय ठीक ऐसे ही हैं, जैसे कैंसर के रोगी को बीच-बीच में क्रोसिन दी जाये…reenstup

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